Ghazals of Shahram Sarmadi
नाम | शहराम सर्मदी |
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अंग्रेज़ी नाम | Shahram Sarmadi |
जन्म की तारीख | 1975 |
जन्म स्थान | Iran |
याद की बस्ती का यूँ तो हर मकाँ ख़ाली हुआ
वो एक लम्हा-ए-रफ़्ता भी क्या बुला लाया
तो क्या तड़प न थी अब के मिरे पुकारे में
सुन रखा था तजरबा लेकिन ये पहला था मिरा
समुंदर तिश्नगी वहशत रसाई चश्मा-ए-लब तक
रह-ए-वफ़ा में रहे ये निशान-ए-ख़ातिर बस
रगों में रात से ये ख़ून सा रवाँ है क्या
नसीब-ए-चश्म में लिक्खा है गर पानी नहीं होना
नदी थी कश्तियाँ थीं चाँदनी थी झरना था
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
मिरे सुख़न पे इक एहसान अब के साल तो कर
मता-ए-पास-ए-वफ़ा खो नहीं सकूँगा मैं
मैं नहीं रोता हूँ अब ये आँख रोती है मुझे
ख़ला सा ठहरा हुआ है ये चार-सू कैसा
जो इस बरस नहीं अगले बरस में दे दे तू
इस सोच में ही मरहला-ए-शब गुज़र गया
इनायत है तिरी बस एक एहसान और इतना कर
हम अपने इश्क़ की बाबत कुछ एहतिमाल में हैं
हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ
हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई
ग़ुबार-ए-दर्द में राह-ए-नजात ऐसा ही
फ़ज़ा होती ग़ुबार-आलूदा सूरज डूबता होता
बस सलीक़े से ज़रा बर्बाद होना है तुम्हें
ब-राह-ए-रास्त नहीं फिर भी राब्ता सा है
ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है
बदल जाएगा सब कुछ ये तमाशा भी नहीं होगा