ज़िंदगी में यूँ तो हर इक हादिसा नागाह था
ज़िंदगी में यूँ तो हर इक हादिसा नागाह था
जिस्म के परछाईं बनने का अमल जाँ-काह था
अब तो सारे दश्त-ओ-दरिया इन निगाहों में रहें
दिन गए ज़ौक़-ए-सफ़र में जब कोई गुमराह था
ख़ाली-पन अपनी जगह कुछ तल्ख़ियाँ रखता तो है
खोखले-पन से रिफ़ाक़त के भी दिल आगाह था
तेवर-ए-दरिया का शिकवा है न तूफ़ाँ का गिला
मेरी पतवारें ख़फ़ा थीं बादबाँ बद-ख़्वाह था
अज्नबिय्यत आ गई है मुझ में थोड़ी सी तो क्या
ये ज़माना भी मिरी जानिब से ला-परवाह था
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