अजीब ख़ौफ़ है जज़्बों की बे-लिबासी का
अजीब ख़ौफ़ है जज़्बों की बे-लिबासी का
जवाज़ पेश करूँ क्या मैं इस उदासी का
ये दुख ज़रूरी है रिश्ते ख़ला-पज़ीर हुए
अदा हुआ है मगर क़र्ज़ ख़ुद-शनासी का
न ख़्वाब और न ख़ौफ़-ए-शिकस्त-ए-ख़्वाब रहा
सबब यही है निगाहों की बे-हरासी का
कोई है अपने सिवा भी मसाफ़त-ए-शब में
सहर जो हो तो खुले राज़ ख़ुश-क़यासी का
वो सैल-ए-अश्क सिमटने लगा है शे'रों में
जिसे मिला न कोई रास्ता निकासी का
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