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वो सामने हों मिरे और नज़र झुकी न रहे - शहनाज़ मुज़म्मिल कविता - Darsaal

वो सामने हों मिरे और नज़र झुकी न रहे

वो सामने हों मिरे और नज़र झुकी न रहे

मता-ए-ज़ीस्त लुटा कर कोई कमी न रहे

दिए जलाए हैं मैं ने खुले दरीचों पर

ऐ तुंद-ओ-तेज़ हवा तुझ को बरहमी न रहे

बताओ ऐसा भी मंज़र नज़र से गुज़रा है

चराग़ जलते रहें और रौशनी न रहे

कोई भी लम्हा गुज़रता नहीं है तेरे बग़ैर

तअ'ल्लुक़ात में ऐसी भी चाशनी न रहे

हमारे हौसले को देख कर ये कहते हो

ज़बान बंद रहे आँख में नमी न रहे

मिले जो रौशनी तुझ से तो ज़ुल्मतें कम हों

कि तेरे बा'द मिरी जान ज़िंदगी न रहे

लबों पे आ गया दम अपना हब्स मौसम में

हवा-ए-अब्र-ए-बहाराँ यूँही थमी न रहे

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In Hindi By Famous Poet Shahnaz Muzammil. is written by Shahnaz Muzammil. Complete Poem in Hindi by Shahnaz Muzammil. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.