ग़म मुझ से किसी तौर समेटा नहीं जाता
ग़म मुझ से किसी तौर समेटा नहीं जाता
पहरा है मिरी सोच पे बोला नहीं जाता
अब दिल के धड़कने की सदा भी नहीं आती
और क़र्या-ए-ख़्वाहिश से भी निकला नहीं जाता
सज्दे के निशानों से जबीं ज़ख़्म हुई है
और तुझ से मुक़द्दर मिरा बदला नहीं जाता
सूरज के निकलने की ख़बर मुझ को भी करना
ज़ुल्मत-कदा-ए-शब में तो ठहरा नहीं जाता
आँखों में छुपे ख़्वाब भी छिन जाएँ न मुझ से
इस ख़ौफ़ से रौज़न कोई खोला नहीं जाता
हर रोज़ नशेमन पे मिरे गिरती है बिजली
घर मुझ से नया रोज़ बनाया नहीं जाता
हम अपनी अनाओं का भरम रखते हैं 'शहनाज़'
हर बात पे तूफ़ान उठाया नहीं जाता
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