शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की दवा मैं क्या करता
शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की दवा मैं क्या करता
तिरे अलावा कोई दूसरा मैं क्या करता
मैं ग़ोता-ज़न था तिरी याद के समुंदर में
लिबास उठा के कोई ले गया मैं क्या करता
किसी के जाम की झूटी शराब क्यूँ पीता
तुम्हारे हुस्न की क़ातिल अदा मैं क्या करता
मैं जब चला मिरी मंज़िल भी चल पड़ी आगे
हमारा कम न हुआ फ़ासला मैं क्या करता
हर एक चीज़ अगर तेरे इख़्तियार में है
तो मैं ने होने दिया जो हुआ मैं क्या करता
हयात-ए-नौ के जज़ीरे पे रोकनी पड़ी नाव
मुख़ालिफ़त पे तुली थी हवा मैं क्या करता
मिरी सरिश्त में इंकार रख दिया तू ने
तो हुक्म मानता कैसे भला मैं क्या करता
ये दिल तो एक ज़माने से इंतिज़ार में था
तू आ के बैठता फिर देखता मैं क्या करता
मिरा तो जो भी था सब कुछ तिरा दिया हुआ था
मिरे करीम तिरा शुक्रिया मैं क्या करता
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