रौशन आईनों में झूटे अक्स उतार गया
रौशन आईनों में झूटे अक्स उतार गया
कैसा ख़्वाब था मेरी सारी उम्र गुज़ार गया
वक़्त की आँखों में देखी काली घनघोर घटा
लेकिन गज़ भर छाँव नहीं थी जब मैं पार गया
मैं क्यूँ अर्ज़-ए-तमन्ना ले कर उस दर पर जाऊँ
मौज-ए-बाद-ए-सबा के पीछे कब गुलज़ार गया
इस दुनिया में बे-क़द्रों से किस ने पाया फ़ैज़
उस के प्यार में जीना मरना सब बेकार गया
अब सुनसान गली में साया तक मौजूद नहीं
आधी रात के सन्नाटे में कौन पुकार गया
चेहरों को पैरों से कुचल कर आगे बढ़ जाना
जीत इसी को कहते हैं तो फिर मैं हार गया
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