है शर्त क़ीमत-ए-हुनर भी अब तो रब्त-ए-ख़ास पर
है शर्त क़ीमत-ए-हुनर भी अब तो रब्त-ए-ख़ास पर
मिलेगा संग-ए-दाद भी हवा के रुख़ को देख कर
कभी हवा का अज्र है कभी रुतों का है हुनर
कहाँ हुआ है आज तक परिंद कोई मो'तबर
कनार-ए-आब ख़ूँ-चकाँ जबीं तो ख़ाक हो चुकी
ये किस का अक्स पानियों में फिर उठा रहा है सर
हज़ार में असीर हूँ तिरे तिलिस्म-ए-नुत्क़ की
ये क़ुफ़्ल-ए-दिल कहाँ खुला कलीद-ए-हर्फ़ से मगर
हवा का रिज़्क़ हो चुके उजाले मेरी राह के
कि अब के फिर सियाहियों की सम्त उठ गई नज़र
वो जाएगा तो इस के बअ'द दुख ही घर में आएगा
न जाने किस उम्मीद पर सजे हुए हैं बाम-ओ-दर
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