सानेहा हो के रहा चश्म का मुरझा जाना
सानेहा हो के रहा चश्म का मुरझा जाना
ख़्वाब लगता है तिरा ख़्वाब में भी आ जाना
आँख ता-देर रही मौजा-ए-ग़म-नाक में तर
हसन का खेल था आईने को चमका जाना
तू सर-ए-बाम हवा बन के गुज़रता क्यूँ है
मेरे मल्बूस की आदत नहीं लहरा जाना
दश्त के लब पे है इस क़तरा-ए-नैसाँ का मज़ा
तू कहाँ जान सका मैं ने तुझे क्या जाना
तुख़्म बोता है कोई हाथ मिरी मिट्टी में
मुझ को आसाँ है बहुत छाँव का फैला जाना
(550) Peoples Rate This