मिले जो नाक़ा-ए-वहशत को सारबाँ कोई
मिले जो नाक़ा-ए-वहशत को सारबाँ कोई
दिखाऊँ क़ाफ़िला-ए-ख़्वाब का निशाँ कोई
ख़मोशियों ही से मशरूत है जनम मेरा
सो मेरी राख से उठता नहीं धुआँ कोई
ख़सारा और ही होता था बे-घरी का मगर
मुझे मकान में रखता है बे-मकाँ कोई
किसी से होने न होने के दरमियाँ हो जो रब्त
वहीं तो रब्त में आता है दरमियाँ कोई
सुराग़ दे के मुझे मेरी बे-ज़बानी का
मुझी में आन बसा मुझ सा बे-ज़बाँ कोई
तू मेरे अक्स को मीज़ान-ए-आइना में न तोल
उठा रहा है अभी मेरी किर्चियाँ कोई
तिरे ख़याल की आबादियाँ छुपाती हूँ
कि मुझ से छीन न ले मेरी बस्तियाँ कोई
(544) Peoples Rate This