लम्स आहट के हवाओं के निशाँ कुछ भी नहीं
लम्स आहट के हवाओं के निशाँ कुछ भी नहीं
ख़्वाब ही ख़्वाब है ये शहर यहाँ कुछ भी नहीं
कोई गुज़री हुई शामों में कभी चमका था
इस घनी शब के अँधेरे में अयाँ कुछ भी नहीं
चंद साअत के सितारे हैं सर-ए-बाम तुलू
दिन उतर जाएँ तो फिर घर का समाँ कुछ भी नहीं
इक ख़मोशी है लिए हैरत-ए-सद-नक़्श-ओ-निगार
वर्ना बदले हुए मौसम की ज़बाँ कुछ भी नहीं
आसमाँ आज तिरी छाँव में आ बैठी मैं
अब मिरे सर पे तिरा कोह-ए-गिराँ कुछ भी नहीं
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