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यार भी राह की दीवार समझते हैं मुझे - शाहिद ज़की कविता - Darsaal

यार भी राह की दीवार समझते हैं मुझे

यार भी राह की दीवार समझते हैं मुझे

मैं समझता था मिरे यार समझते हैं मुझे

जड़ उखड़ने से झुकाव है मिरी शाख़ों में

दूर से लोग समर-बार समझते हैं मुझे

क्या ख़बर कल यही ताबूत मिरा बन जाए

आप जिस तख़्त का हक़दार समझते हैं मुझे

नेक लोगों में मुझे नेक गिना जाता है

और गुनहगार गुनहगार समझते हैं मुझे

मैं तो ख़ुद बिकने को बाज़ार में आया हुआ हूँ

और दुकाँ-दार ख़रीदार समझते हैं मुझे

मैं बदलते हुए हालात में ढल जाता हूँ

देखने वाले अदाकार समझते हैं मुझे

वो जो उस पार हैं इस पार मुझे जानते हैं

ये जो इस पार हैं उस पार समझते हैं मुझे

मैं तो यूँ चुप हूँ कि अंदर से बहुत ख़ाली हूँ

और ये लोग पुर-असरार समझते हैं मुझे

रौशनी बाँटता हूँ सरहदों के पार भी मैं

हम-वतन इस लिए ग़द्दार समझते हैं मुझे

जुर्म ये है कि इन अंधों में हूँ आँखों वाला

और सज़ा ये है कि सरदार समझते हैं मुझे

लाश की तरह सर-ए-आब हूँ मैं और 'शाहिद'

डूबने वाले मदद-गार समझते हैं मुझे

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In Hindi By Famous Poet Shahid Zaki. is written by Shahid Zaki. Complete Poem in Hindi by Shahid Zaki. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.