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तेरी मर्ज़ी के ख़द-ओ-ख़ाल में ढलता हुआ मैं - शाहिद ज़की कविता - Darsaal

तेरी मर्ज़ी के ख़द-ओ-ख़ाल में ढलता हुआ मैं

तेरी मर्ज़ी के ख़द-ओ-ख़ाल में ढलता हुआ मैं

ख़ाक से आब न हो जाऊँ पिघलता हुआ मैं

ऐ ख़िज़ाँ मैं तुझे ख़ुश-रंग बना सकता था

तुझ से देखा न गया फूलता-फलता हुआ मैं

मुझ को माँगी हुई इज़्ज़त नहीं पूरी आती

टूट जाऊँ न ये पोशाक बदलता हुआ मैं

शोबदा-गर नहीं मेहमान-ए-सफ़-ए-याराँ हूँ

ज़हर पीता हुआ और शहद उगलता हुआ मैं

यम-ब-यम रूह मचलती हुई मछली की तरह

दम-ब-दम वक़्त के हाथों से फिसलता हुआ मैं

अब मिरी राख उड़ा या मुझे आँखों से लगा

तुझ तलक आ गया हूँ आग पे चलता हुआ मैं

कह रही हैं मुझे वो हौसला-अफ़्ज़ा आँखें

रूह तक जाऊँ ख़द-ओ-ख़ाल मसलता हुआ मैं

हो न हो एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं

रक़्स करता हुआ तू आग में जलता हुआ मैं

कार-ए-दरवेशी जज़ा-याब है लेकिन 'शाहिद'

ख़ुश नहीं ख़ल्वत-ए-ख़ाली से बहलता हुआ मैं

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In Hindi By Famous Poet Shahid Zaki. is written by Shahid Zaki. Complete Poem in Hindi by Shahid Zaki. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.