वही सफ़्फ़ाक हवाओं का सदफ़ बनते हैं
जिन दरख़्तों का निकलता हवा क़द होता है
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हर इरादा मुज़्महिल हर फ़ैसला कमज़ोर था
इक सब्ज़ रंग बाग़ दिखाया गया मुझे
ख़ौफ़ से अब यूँ न अपने घर का दरवाज़ा लगा
गँवाए बैठे हैं आँखों की रौशनी 'शाहिद'
तारीकियों का हम थे हदफ़ देखते रहे
ज़ेहन में लगता है जब ख़ुश-रंग लफ़्ज़ों का हुजूम
समुंदरों में अगर ख़लफ़िशार-ए-आब न हो
मीनारों से ऊपर निकला दीवारों से पार हुआ
मजमा' मिरे हिसार में सैलानियों का है
आँसुओं में ज़रा सी हँसी घोल कर
पहले तो छीन ली मिरी आँखों की रौशनी