रोने से और लुत्फ़ वफ़ाओं का बढ़ गया
सब ज़ाइक़ा फलों में नए पानियों का है
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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तारीकियों का हम थे हदफ़ देखते रहे
ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं
बुझती हुई सी एक शबीह ज़ेहन में लिए
और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
समुंदरों में अगर ख़लफ़िशार-ए-आब न हो
ज़ेहन में लगता है जब ख़ुश-रंग लफ़्ज़ों का हुजूम
पहले तो छीन ली मिरी आँखों की रौशनी
ख़ौफ़ से अब यूँ न अपने घर का दरवाज़ा लगा
वही सफ़्फ़ाक हवाओं का सदफ़ बनते हैं
ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समुंदर कर दे
मीनारों से ऊपर निकला दीवारों से पार हुआ
गँवाए बैठे हैं आँखों की रौशनी 'शाहिद'