पहले तो छीन ली मिरी आँखों की रौशनी
फिर आईने के सामने लाया गया मुझे
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वार हुआ कुछ इतना गहरा पानी का
मजमा' मिरे हिसार में सैलानियों का है
तुझ को देखा नहीं महसूस किया है मैं ने
मीनारों से ऊपर निकला दीवारों से पार हुआ
ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समुंदर कर दे
समुंदरों में अगर ख़लफ़िशार-ए-आब न हो
तारीकियों का हम थे हदफ़ देखते रहे
ख़ौफ़ से अब यूँ न अपने घर का दरवाज़ा लगा
ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं
गँवाए बैठे हैं आँखों की रौशनी 'शाहिद'
हर इरादा मुज़्महिल हर फ़ैसला कमज़ोर था
आँसुओं में ज़रा सी हँसी घोल कर