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वो क्यूँ आया - शाहिद मलिक कविता - Darsaal

वो क्यूँ आया

सबा के सब्ज़ ख़ित्ते से

सुनहरे मौसमों की आरज़ू ले कर

दयार-ए-जाँ में क्यूँ आया

वो जिस की आँख चमकीले दिनों का खोज देती है

जहाँ रंगों की धुन में आश्ना मंज़र तहय्युर के

खुली ख़्वाहिश के पानी में

उभरते तैरते हैं डूब जाते हैं

वो मुझ से पूछता है सैंकड़ों असरार जीने और मरने के

नज़र का रौशनी से राब्ता क्या है

लहू को चाँदनी से क्या तअ'ल्लुक़ है

फ़ज़ा की गोद में दम तोड़ती क़ौस-ए-क़ुज़ह क्यूँ है

बिछड़ना याद रखना भूल जाना किस को कहते हैं

मता-ए-हस्ती-ए-बे-ख़ानुमाँ क्या है

ज़मीं क्या है ज़माँ क्या है

मगर मैं लफ़्ज़-गर हों कैसे समझाऊँ

कि मेरे तजरबे की वुसअ'तों में भी

सबा के सब्ज़ ख़ित्ते से मिरे सुख की क़लम-रौ तक

तहय्युर का इलाक़ा है

जहाँ नीले घरोंदों से

सवालों के परिंदे माइल-ए-परवाज़ रहते हैं

गुमाँ की सर-ज़मीनों को

सबा के सब्ज़ ख़ित्ते को

नज़र के बादबानों से

खुली ख़्वाहिश के पानी तक

परिंदे हैरतों की ताज़ा मंज़िल का इशारा हैं

परिंदे आगही का इस्तिआ'रा हैं

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