फैला हुआ है जिस्म में तन्हाइयों का ज़हर
रग रग में जैसे सारी उदासी उतर गई
Wasi Shah
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अजीब लोग
बू-ए-पैराहन-ए-सदा आए
वक़्फ़ा
बुझे बुझे से चराग़ों से सिलसिला पाया
ख़ूँ का सैलाब था जो सर से अभी गुज़रा है
रंग बे-रंग हुआ डूब गईं आवाज़ें
हर दर-ओ-दीवार पे लर्ज़ां कोई पैकर लगे
ग़म की तहज़ीब अज़िय्यत का क़रीना सीखें
कुछ दर्द बढ़ा है तो मुदावा भी हुआ है
रग रग में मेरी फैल गया है ये कैसा ज़हर
रात ऐसी कि कभी जिस का सवेरा न हुआ