ख़ूँ का सैलाब था जो सर से अभी गुज़रा है
बाम-ओ-दर अब भी सिसकते हैं मगर घर चुप हैं
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कहीं कुछ नहीं होता
ग़म की तहज़ीब अज़िय्यत का क़रीना सीखें
रात ऐसी कि कभी जिस का सवेरा न हुआ
कश्ती रवाँ-दवाँ थी समुंदर खुला हुआ
हर मरहले से यूँ तो गुज़र जाएगी ये शाम
रग रग में मेरी फैल गया है ये कैसा ज़हर
बाम-ओ-दर टूट गए बह गया पानी कितना
रंग बे-रंग हुआ डूब गईं आवाज़ें
अजीब लोग
बुझे बुझे से चराग़ों से सिलसिला पाया