रग रग में मेरी फैल गया है ये कैसा ज़हर
रग रग में मेरी फैल गया है ये कैसा ज़हर
क्यूँ डूबने लगा है धुँदलकों में सारा शहर
मुझ को झिंझोड़ देती हैं लम्हों की आहटें
उठती है मेरे जिस्म में इक बेबसी की लहर
ये शब मिरे वजूद पे यूँ टूट पड़ती है
जैसे कोई बला हो कि आसेब हो कि क़हर
फूटा न मुद्दतों से कोई चश्मा-ए-उमीद
सूखी पड़ी हुई है मिरी ख़्वाहिशों की नहर
चेहरे पे वक़्त की मैं सियाही मला करूँ
मुझ को भी कुछ मिला है मशिय्यत से कार-ए-दहर
(524) Peoples Rate This