रात ही के दामन में चाँद भी हैं तारे भी
रात ही की क़िस्मत है बे-चराग़ होना भी
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दूर सहरा में जहाँ धूप शजर रखती है
ये जो रब्त रू-ब-ज़वाल है ये सवाल है
ज़मीं तश्कील दे लेते फ़लक ता'मीर कर लेते
आज भी जिस की है उम्मीद वो कल आए हुए
कोई लहजा कोई जुमला कोई चेहरा निकल आया
एक इक मौज को सोने की क़बा देती है
इक अज़ाब होता है रोज़ जी का खोना भी
लोग हैरान हैं हम क्यूँ ये किया करते हैं
शरीफ़ लोग कहाँ जाएँ क्या करें आख़िर
रोज़ खुलने की अदा भी तो नहीं आती है