लोग हैरान हैं हम क्यूँ ये किया करते हैं
लोग हैरान हैं हम क्यूँ ये किया करते हैं
ज़ख़्म को भूल के मरहम का गिला करते हैं
कभी ख़ुशबू कभी जुगनू कभी सब्ज़ा कभी चाँद
एक तेरे लिए किस किस को ख़फ़ा करते हैं
हम तो डूबे भी निकल आए भी फिर डूबे भी
लोग दरिया को किनारे से तका करते हैं
हैं तो मेरे ही क़बीले के ये सब लोग मगर
मेरी ही राह को दुश्वार किया करते हैं
हम चराग़ ऐसे कि उम्मीद ही लौ है जिन की
रोज़ बुझते हैं मगर रोज़ जला करते हैं
वो हमारा दर-ओ-दीवार से मिल कर रोना
चंद हम-साए तो अब तक भी हँसा करते हैं
(556) Peoples Rate This