दूर सहरा में जहाँ धूप शजर रखती है
दूर सहरा में जहाँ धूप शजर रखती है
आँख क्या शय है कहाँ जा के नज़र रखती है
और कुछ रोज़ अभी सूर न फूँका जाए
उस के दरबार में दुनिया अभी सर रखती है
लोग मंज़िल पे बहुत ख़ुश हैं मगर मंज़िल भी
लम्हा लम्हा पस-ए-इम्कान-ए-सफ़र रखती है
आओ उस शख़्स की रूदाद सुनें ग़ौर करें
सुर्ख़-रूई भी जिसे ख़ाक-बसर रखती है
ये ज़ेहानत जो विरासत की अता है 'शाहिद'
कोई दीवार उठाती है तो दर रखती है
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