सोच रहा है इतना क्यूँ ऐ दस्त-ए-बे-ताख़ीर निकाल
सोच रहा है इतना क्यूँ ऐ दस्त-ए-बे-ताख़ीर निकाल
तू ने अपने तरकश में जो रक्खा है वो तीर निकाल
जिस का कुछ अंजाम नहीं वो जंग है दो नक़्क़ादों की
लफ़्ज़ों की सफ़्फ़ाक सिनानें लहजों की शमशीर निकाल
आशोब-ए-तख़रीब सा कुछ इस अंदाम-ए-तख़्लीक़ में है
तोड़ मिरे दीवार-ओ-दर को एक नई ता'मीर निकाल
चाँद सितारों की खेती कर रात की बंजर धरती पर
आँख के इस सूखे दरिया से ख़्वाबों की ताबीर निकाल
तेरे इस एहसान से मेरी ग़ैरत का दम घुटता है
मेरे इन पैरों से अपनी शोहरत की ज़ंजीर निकाल
रोज़ की आपा-धापी से कुछ वक़्त चुरा कर लाए हैं
यार ज़रा हम दोनों की इक अच्छी सी तस्वीर निकाल
'शाहिद' अब ये आलम है इस अहद-ए-सुख़न-अर्ज़ानी का
'मीर' पे कर ईराद भी उस पे 'ग़ालिब' की तफ़्सीर निकाल
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