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सब हैं मसरूफ़ किसी को यहाँ फ़ुर्सत नहीं है - शाहिद कमाल कविता - Darsaal

सब हैं मसरूफ़ किसी को यहाँ फ़ुर्सत नहीं है

सब हैं मसरूफ़ किसी को यहाँ फ़ुर्सत नहीं है

सब ज़रूरत है मगर कार-ए-ज़रूरत नहीं है

तुझ से दुश्नाम-तराज़ों की हिमायत के लिए

अब मिरे पास कोई हर्फ़-ए-सुहूलत नहीं है

रोज़ इक हश्र बपा करते थे जिस की ख़ातिर

हम ये सुनते हैं कि वो फ़ित्ना-ए-क़ामत नहीं है

अक्स-ए-रम-साज़ी-ए-वहशत से उसे है निस्बत

अब तो आईनों को पहली सी वो हैरत नहीं है

किस लिए तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे नदामत है तुझे

ऐ मिरी जान मुझे कोई शिकायत नहीं है

रक़्स-ए-आशोब अजब देखा है गलियों में तिरी

ऐ मिरे शहर यहाँ कोई सलामत नहीं है

हुक्म है ख़ाना-ए-वहशत के मकीनों से कहो

अब यहाँ साँस भी लेने की इजाज़त नहीं है

ख़ूँ-बहा माँगने वालों को नदामत है बहुत

मेरे क़ातिल को मगर कोई नदामत नहीं है

रम्ज़-ओ-असरार से ख़ाली नहीं होते मिरे शे'र

ये अलग बात कि 'शाहिद' को वो शोहरत नहीं है

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In Hindi By Famous Poet Shahid Kamal. is written by Shahid Kamal. Complete Poem in Hindi by Shahid Kamal. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.