फिर आज दर्द से रौशन हुआ है सीना-ए-ख़्वाब
फिर आज दर्द से रौशन हुआ है सीना-ए-ख़्वाब
सजा हुआ है मिरे ज़ख़्म से मदीना-ए-ख़्वाब
ख़िज़ाँ की फ़स्ल में जो रिज़्क़-ए-वहशत-ए-शब था
लुटा रहा हूँ सर-ए-शब वही ख़ज़ीना-ए-ख़्वाब
मुसाफ़िरान-ए-शब-ए-ग़म तुम्हारी ख़ैर तो है
तड़ख़ के टूट गया क्यूँ मिरा नगीना-ए-ख़्वाब
हक़ीक़तों के भँवर से कोई निकाले फिर
रवाँ करे मिरी जानिब कोई सफ़ीना-ए-ख़्वाब
बना दिया तिरी सोहबत ने बे-अदब इन को
कोई सिखाए इन आँखों को अब क़रीना-ए-ख़्वाब
कोई तो हो कि जो मुझ को फ़रेब-ए-पैहम दे
वो कोई हुस्न-ए-हक़ीक़त हो या हसीना-ए-ख़्वाब
ये आँख है हमा-दम गर्दिश-ए-तजस्सुस में
तलाश करती है मुझ में कोई दफ़ीना-ए-ख़्वाब
फ़िशार-ए-नीम-शबी से अब इन दिनों 'शाहिद'
है चाक चाक मिरी जाँ क़बा-ए-सीना-ए-ख़्वाब
(587) Peoples Rate This