धूप के ज़र्द जज़ीरों में नुमू ज़िंदा है
धूप के ज़र्द जज़ीरों में नुमू ज़िंदा है
रंग-ए-आशोब फ़ज़ाओं में लहू ज़िंदा है
ख़्वाब दर ख़्वाब बस इक चीख़ते सहरा का सुकूत
और आँखों में वही दीद की ख़ू ज़िंदा है
शाख़-ए-मिज़्गाँ पे महकने लगे ज़ख़्मों के गुलाब
पिछले मौसम की मुलाक़ात की बू ज़िंदा है
मेरे साक़ी तिरे जाँ-बख़्श लबों का है ये फ़ैज़
दस्त-ए-मय-कश में अभी तक जो सुबू ज़िंदा है
शल हुआ जाता है क्यूँ हाथ मिरे क़ातिल का
ज़द पे ख़ंजर के अभी ख़ुश्क गुलू ज़िंदा है
कपकपी फ़र्त-ए-नदामत से है मौजों में अभी
तिश्ना-लब कौन सर-ए-साहिल-ए-जू ज़िंदा है
कितनी जाँ-सोज़ है इस शहर-ए-मुनाफ़िक़ की हवा
इस पे 'शाहिद' मुझे हैरत है कि तू ज़िंदा है
(608) Peoples Rate This