वो भी धरती पे उतारी हुई मख़्लूक़ ही है
जिस का काटा हुआ इंसान न पानी माँगे
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रेत की लहरों से दरिया की रवानी माँगे
ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी
कुछ देर काली रात के पहलू में लेट के
पाया नहीं वो जो खो रहा हूँ
गिरने दो तुम मुझे मिरा साग़र संभाल लो
क्या फ़र्ज़ है ये जिस्म के ज़िंदाँ में सज़ा दे
ज़िंदगी इक आँसुओं का जाम था
कुछ तो हो रात की सरहद में उतरने की सज़ा
शहर में गलियों गलियों जिस का चर्चा है
पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो