तबाह कर गई पक्के मकान की ख़्वाहिश
मैं अपने गाँव के कच्चे मकान से भी गया
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ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी
मय-ख़ाने की बात न कर वाइज़ मुझ से
कुछ तो हो रात की सरहद में उतरने की सज़ा
शहर में गलियों गलियों जिस का चर्चा है
क्या फ़र्ज़ है ये जिस्म के ज़िंदाँ में सज़ा दे
रूह को क़ैद किए जिस्म के हालों में रहे
पाया नहीं वो जो खो रहा हूँ
कर्ब चेहरे से मह-ओ-साल का धोया जाए
रेत की लहरों से दरिया की रवानी माँगे
गिरने दो तुम मुझे मिरा साग़र संभाल लो
नींद से आँख खुली है अभी देखा क्या है