ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है मेरा भी
ये नज़राना तेरा भी है मेरा भी
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कुछ तो हो रात की सरहद में उतरने की सज़ा
पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो
काँटों को पिला के ख़ून अपना
रूह को क़ैद किए जिस्म के हालों में रहे
तेरा कूचा तिरा दर तेरी गली काफ़ी है
इस सोच में ज़िंदगी बिता दी
वो भी धरती पे उतारी हुई मख़्लूक़ ही है
हर आइने में बदन अपना बे-लिबास हुआ
तबाह कर गई पक्के मकान की ख़्वाहिश
पाया नहीं वो जो खो रहा हूँ
बे-सबब बात बढ़ाने की ज़रूरत क्या है