पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो
पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो
न यूँ लपक कि पलटने को हौसला ही न हो
तमाम हर्फ़ ज़रूरी नहीं हों बे-मा'नी
ये आसमान उधर झुक के टूटता ही न हो
मिले थे यूँ कि जुदा हो के ऐसे मिलते हैं
हमारे बीच कभी जैसे कुछ हुआ ही न हो
हर एक शख़्स भटकता है तेरे शहर में यूँ
किसी की जेब में जैसे तिरा पता ही न हो
जो होता जाता है मायूस दिन-ब-दिन तुझ से
ज़रा क़रीब से देख इस को आइना ही न हो
जहाँ को छान के बैठा है इस तरह 'शाहिद'
तमाम उम्र में जैसे कभी चला ही न हो
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