कहीं का ग़ुस्सा कहीं की घुटन उतारते हैं

कहीं का ग़ुस्सा कहीं की घुटन उतारते हैं

ग़ुरूर ये है काग़ज़ पे फ़न उतारते हैं

सुनी है टूटते पत्तों की हम ने सरगोशी

ये पेड़ पौदे भी क्या पैरहन उतारते हैं

सियासी लोगों से उम्मीद कैसी ख़ाक-ए-वतन

वतन का क़र्ज़ कहीं राहज़न उतारते हैं

ज़मीं पे रख दें अगर आप अपनी शमशीरें

तो हम भी अपने सरों से कफ़न उतारते हैं

उतर के रूह की गहराइयों में हम हर रोज़

ख़ुद अपनी क़ब्र में अपना बदन उतारते हैं

ख़ुदा करे कि सलामत रहें ये बूढ़े शजर

कि हम परिंदे यहीं पर थकन उतारते हैं

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In Hindi By Famous Poet Shahid Jamal. is written by Shahid Jamal. Complete Poem in Hindi by Shahid Jamal. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.