लब तक जो न आया था वही हर्फ़-ए-रसा था
लब तक जो न आया था वही हर्फ़-ए-रसा था
जिस को न मैं समझा था वही मेरा ख़ुदा था
उतरा था रग-ओ-पै में मिरी ज़हर के मानिंद
वो दर्द की सूरत मिरे पहलू से उठा था
हर चंद कि निस्बत तो मुझे गुल से रही थी
मैं बू की तरह पैरहन-ए-गुल से जुदा था
तन्हाई का एहसास रहा उस से न मिल कर
मिलने पे ये एहसास मगर और सिवा था
महरूम रखा था मुझे मेरी ही अना ने
जो उठ न सका था वो मिरा दस्त-ए-दुआ था
जैसे कहीं कुछ रख के कोई भूल गया हो
इस तरह अज़ल से वो मुझे ढूँड रहा था
दिल कह के उसे पहलू-ए-'इश्क़ी' में जगह दी
वो शहर कि इक बार उजड़ कर न बसा था
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