हर मर्ग-ए-आरज़ू का निशाँ देर तक रहा
हर मर्ग-ए-आरज़ू का निशाँ देर तक रहा
जब शम्अ' गुल हुई तो धुआँ देर तक रहा
वो वक़्त-हा-ए-सू-ए-हरम जब चले थे हम
दामान-कश ख़याल-ए-बुताँ देर तक रहा
कलियाँ उदास फूल फ़सुर्दा सबा ख़मोश
अब के चमन पे रंग-ए-ख़िज़ाँ देर तक रहा
मुद्दत गुज़र चुकी प ख़ुशा लज़्ज़त-ए-विसाल
हर माह-वश पे उस का गुमाँ देर तक रहा
दार-ओ-रसन का ज़िक्र छिड़ा जब भी दोस्तो
आँखों में एक सर्व-ए-रवाँ देर तक रहा
दीवाने को तो अपना भी रहता नहीं है होश
इक नाम फिर भी विर्द-ए-ज़बाँ देर तक रहा
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