फ़स्ल-ए-गुल तोहमत-ए-जुनूँ लाई
फ़स्ल-ए-गुल तोहमत-ए-जुनूँ लाई
बस्ती बस्ती हुई है रुस्वाई
शहर में जब से आ गया हूँ तिरे
और भी बढ़ गई है तन्हाई
आरज़ू एक ना-शगुफ़्ता कली
जो सर-ए-शाख़-सार मुरझाई
आशिक़ी इक दबी हुई सी चोट
भीगे मौसम में जो उभर आई
ज़िंदगी शाम-ए-ग़म की बाँहों में
इक सुलगती हुई सी तन्हाई
लोग कहते हैं अहल-ए-दिल को कभी
ज़िंदगी रास ही नहीं आई
हौसला हो तो ऐ ग़म-ए-जानाँ
कौन तेरा नहीं तमन्नाई
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