लगता है जिस का रुख़-ए-ज़ेबा मह-ए-कामिल मुझे
लगता है जिस का रुख़-ए-ज़ेबा मह-ए-कामिल मुझे
उस ने ही समझा न लेकिन प्यार के क़ाबिल मुझे
यूँ तो मेरी दस्तरस में क्या नहीं सब कुछ तो है
जिस को चाहा हो न पाया बस वही हासिल मुझे
आख़िरश क़ातिल की आँखों में भी आँसू आ गए
देखा जब इस ने तड़पते सूरत-ए-बिस्मिल मुझे
मानता हूँ बुल-हवस भी होते हैं आशिक़ मगर
उन गुनहगारों में क्यूँ करता है तू शामिल मुझे
हो गया ग़र्क़ाब दरिया फँस के मैं गिर्दाब में
फ़ासले से देखता ही रह गया साहिल मुझे
कब का कार-ए-इश्क़ में 'ग़ाज़ी' का जीवन कट गया
कहने दो कहते हैं जो नाकारा-ओ-कामिल मुझे
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