कोई बच नहीं पाता ऐसा जाल बुनते हैं
कोई बच नहीं पाता ऐसा जाल बुनते हैं
कैसे कैसे क़िस्से ये माह-ओ-साल बुनते हैं
जाने कितनी सदियों से हर बरस ख़िज़ाँ-रुत में
ख़ुश्क पत्ते धरती पर ज़र्द शाल बुनते हैं
आज कल न जाने क्यूँ ज़ेहन पर तनाव है
टूट-फूट जाता है जो ख़याल बुनते हैं
शहर वाले पोछेंगे कुछ सबब जद्दाई का
घर के ख़ाली कोने भी कुछ सवाल बुनते हैं
हिज्र के मनाज़िर को भूलना ही बेहतर है
प्यार की तनाबों से फिर विसाल बुनते हैं
हल्क़ा-ए-मोहब्बत में जो नज़ीर बन जाए
आओ हम वफ़ाओं की वो मिसाल बुनते हैं
अब पुरानी बातों को क्या कुरेदना 'शाहिद'
भूल कर गुज़शता को अपना हाल बुनते हैं
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