रंग-ए-नज़र से हुस्न-ए-तमन्ना निखार के
रंग-ए-नज़र से हुस्न-ए-तमन्ना निखार के
बैठी हूँ आज काकुल-ए-हस्ती सँवार के
गुज़री हूँ मैं नफ़स की कशाकश से जिस तरह
धारों से लड़ रही थी किसी आबशार के
पाँव के आबलों से न पूछो सफ़र का हाल
क़िस्से हैं दर्दनाक रह-ए-ख़ार-ज़ार के
दौर-ए-ख़िज़ाँ गया न गया इस से क्या ग़रज़
मंज़र जमा लिए हैं नज़र में बहार के
वक़्त-ए-सहर है गरचे उजाला अभी नहीं
ये जाल रफ़्ता रफ़्ता खुलेंगे ख़ुमार के
वो आ रही है दूर से ख़ुर्शीद की किरन
'शाहीन' दर खुले हैं मिरे इंतिज़ार के
(569) Peoples Rate This