नक़दी कहाँ से आएगी
पहले रातें इतनी लम्बी कब होती थीं
जो भी हिसाब और खेल हुआ करता था
सब मौसम का था
रोज़-ओ-शब की हर साअ'त का इक जैसा पैमाना था
अपने मिलने वाले सारे
झूटे सच्चे
यारों से इक मुस्तहकम याराना था
लेकिन
अपने दर्द की सम्तों की पहचान न रखने वाले दिल
ये सोचना था
हर ख़्वाब की क़ीमत होती है
और अब इन दो आँखों में इतने
तरह तरह के
दुनिया भर के ख़्वाब भरे हैं
इन में से इक इक को गिन कर
सब के मुनासिब दाम चुकाना
इस के लिए तो दो सदियाँ भी कम होंगी
कंगले
इतनी नक़दी कहाँ से आएगी
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