कसीला ज़ाइक़ा
ब-यक-जुम्बिश
मिरी आँखों को पत्थर कर दिया जिस ने
वो ख़ंजर काश
सीने में मिरे पैवस्त हो जाता
रवाँ है
वक़्त की सफ़्फ़ाक मेहराबों के नीचे
नहर-ए-ख़ूँ-बस्ता
सिसकती चीख़ती तन्हा सदाओं की
मैं अब किस के लिए
घर के खंडर में ख़्वाब घर के देखता जाऊँ
ज़बाँ पर है कसीला ज़ाइक़ा ताँबे के सिक्के का
कहाँ तक हर किसी के सामने कश्कोल फैलाऊँ
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