गुलाब-ब-कफ़
बहार की ये दिल-आवेज़ शाम
जिस की तरफ़
क़दम उठाए हैं मैं ने
कि उस से हाथ मिलाऊँ
और इक शगुफ़्ता शनासाई की बिना रक्खूँ
फिर अपनी ख़ाना-बदोशी की मुश्तरक लय पर
उसे गुलाब-ब-कफ़ ख़ेमा-ए-जुनूँ तक लाऊँ
कुछ उस की ख़ैर ख़बर पूछूँ
और कुछ अपनी कहूँ
कहूँ कि कितने ही पतझड़ के मौसम आए गए
मगर इन आँखों की सहर-उल-बयानियाँ न गईं
कहूँ कि गरचे अनासिर ने तोहमतें बाँधीं
जुनूँ ज़दों की मगर सख़्त-जानियाँ न गईं
कहूँ कि एक हैं अंदेशे सब मिरे तेरे
कहूँ अलग नहीं जीने के ढब मिरे तेरे
कहूँ कि एक से हैं रोज़-ओ-शब मिरे तेरे
कहूँ कि मिलते हैं नाम-ओ-नसब मिरे तेरे
कहूँ अज़ल से जुनूँ कारोबार अपना है
हज़ार जब्र हो कुछ इख़्तियार अपना है
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