क़ुबूल है ग़म-ए-दुनिया तिरे हवाले से
क़ुबूल है ग़म-ए-दुनिया तिरे हवाले से
ये बोझ वर्ना सँभलता नहीं सँभाले से
सुराग़ अपना उधर ही कहीं मिले शायद
तने हुए हैं जिधर मकड़ियों के जाले से
मैं एक ज़र्रा-ए-आवारा और मिरी ख़ातिर
समुंदरों सी ये रातें ये दिन हिमालय से
खुली तो रखता हूँ मैं घर की खिड़कियाँ लेकिन
वही तमाम नज़ारे हैं देखे-भाले से
किसी की याद भी उनवान-ए-बेवफ़ाई थी
पड़े हैं पाँव में क़ब्ल-ए-सफ़र भी छाले से
सुकून कितना है जी को ये सोच कर कि हमें
हरम से कोई इलाक़ा न अब शिवाले से
ये कम नहीं कि मैं उस की दुआ में शामिल हूँ
कुछ और चाहिए क्या दूर जाने वाले से
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