निकल के घर से फिर इस तरह घर गए हम तुम
ख़ुद अपनी राख उड़ाते बिखर गए हम तुम
ज़माना अपनी अदा-कारियों पे नाज़ाँ था
और अपने-आप पे इल्ज़ाम धर गए हम तुम
उसे कहो ग़म-ए-ताराजी-ए-चमन हो उसे
हद बहार ओ ख़िज़ाँ से गुज़र गए हम तुम
कभी जहाँ के मुक़ाबिल रहे तन-ए-तन्हा
कभी ख़ुद अपनी ही आहट से डर गए हम तुम