मेरी चाहत पे न इल्ज़ाम लगाओ लोगो
मेरी चाहत पे न इल्ज़ाम लगाओ लोगो
कुछ समझ कर ही उठाता है कोई बार-ए-गिराँ
पहले ज़र्रात-ए-ज़मीं-बोस का हमराज़ तो बन
फिर समझना बहुत आसाँ है सितारों की ज़बाँ
राज़-दार-ए-गुल-ओ-नसरीं तो हज़ारों थे मगर
कोई समझा ही नहीं बर्ग-ए-परेशाँ की ज़बाँ
फेंकती है तिरे 'शाहीन' पे दुनिया पत्थर
ना-गहाँ चूर न हो जाए ये शीशे का मकाँ
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