यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
पहरे-दारों में कोई आँख झपक जाता है
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किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं
मता-ए-जाँ हैं मिरी उम्र भर का हासिल हैं
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ़ गीले से
सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज
कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
ऐसे रखती है हमें तेरी मोहब्बत ज़िंदा
मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता