वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
वो एक मैं कि मिरा कोई रोने वाला नहीं
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किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज
सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
मुझे ये ज़िद है कभी चाँद को असीर करूँ
मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता
वो एक ख़्वाब कि आँखों में जगमगा रहा है
इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है
कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
ख़ाक-ज़ादा हूँ मगर ता-ब फ़लक जाता है
यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे