सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
अब आसमान तलक रास्ता बनाना है
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कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए
वफ़ा का शौक़ ये किस इंतिहा में ले आया
ख़ाक-ज़ादा हूँ मगर ता-ब फ़लक जाता है
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ़ गीले से
कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना
वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है
यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
मुझे ये ज़िद है कभी चाँद को असीर करूँ