मुझे ये ज़िद है कभी चाँद को असीर करूँ
सो अब के झील में इक दाएरा बनाना है
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मता-ए-जाँ हैं मिरी उम्र भर का हासिल हैं
यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ़ गीले से
भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
वो एक ख़्वाब कि आँखों में जगमगा रहा है
मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता
वफ़ा का शौक़ ये किस इंतिहा में ले आया
कितने गुलशन कि सजे थे मिरे इक़रार के नाम
सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं