मता-ए-जाँ हैं मिरी उम्र भर का हासिल हैं
वो चंद लम्हे तिरे क़ुर्ब में गुज़ारे हुए
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ऐसे रखती है हमें तेरी मोहब्बत ज़िंदा
ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं
वो एक ख़्वाब कि आँखों में जगमगा रहा है
इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ़ गीले से
मुझे ये ज़िद है कभी चाँद को असीर करूँ
यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
ख़ाक-ज़ादा हूँ मगर ता-ब फ़लक जाता है
वफ़ा का शौक़ ये किस इंतिहा में ले आया
सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज
भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए