कितने गुलशन कि सजे थे मिरे इक़रार के नाम
कितने ख़ंजर कि मिरी एक नहीं पर चमके
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ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है
ख़ाक-ज़ादा हूँ मगर ता-ब फ़लक जाता है
वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
मुझे ये ज़िद है कभी चाँद को असीर करूँ
मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता
किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं